रायपुर।संयुक्त किसान मोर्चा का राज्य सम्मेलन 20 सितम्बर को रायपुर के वृन्दावन हॉल में सफलता पूर्वक सम्पन हुआ। इस सम्मेलन में छत्तीसगढ़ में किसानों, आदिवासियों, दलितों और विस्थापन पीड़ितों के बीच काम करने वाले 20 से ज्यादा संगठनों के प्रतिनिधि हिस्सा लिए। सम्मेलन में भाग लेने के लिए भारतीय किसान यूनियन के प्रवीणअखिल भारतीय किसान सभा के बादल सरोज, किसान संघर्ष समिति के डॉ. सुनीलम तथा किसान व खेत मजदूर सभा के सत्यवान,अखिल भारतीय क्रांतिकारी किसान सभा के सचिव हेमंत कुमार टण्डन ,आत्माराम साहू,नरोत्तम शर्मा, छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन से आलोक शुक्ला, जिला किसान संघ बालोद अध्यक्ष गैंद सिंह ठाकुर,जिला किसान संघ राजनांदगांव के अध्यक्ष सुदेश टीकम,अखिल भारतीय किसान संघ के सचिव संजय पराते ,छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष जनक लाल ठाकुर,की अध्यक्षता में राज्य सम्मेलन सम्पन हुआ।
वक्ताओं ने अपने विचार रखते हुए कहा कि भारत एक कृषि प्रधान देश है जहां 60 प्रतिशत जनता प्रत्यक्ष रुप से तथा 30 प्रतिशत जनता अप्रत्यक्ष तौर पर खेती से जुड़ी हुई है। कोरोना काल में जब देश की अर्थ व्यव्यवस्था नकारात्मक 23 प्रतिशत की निचले स्तर पर थी वहां पर किसानों ने अपने उत्पादन के दम पर देश की अर्थव्यवस्था को संजीवनी प्रदान की। परंतु विडम्बना यह है कि किसानों के हाथों से उत्पादन जब बिचौलियों के पास जाता है, तब उनकी कीमतें बढ़ने लगती है और किसानों को उनका उत्पादन लागत भी वसूल नहीं होता है। किसान अपनी खून पसीने से फसल पैदा करते हैं। महंगी होती पेट्रोल, डीजल, खाद, बीज, दवाई की कीमतों से किसानों पर आर्थिक बोझ बढ़ता ही जा रहा है। किसान , केवल अपने फसलों के आधार पर परिवार का भरण-पोषण करने, शिक्षा, चिकित्सा, परिवहन जैसे परिवार की विभिन्न जरुरतों को पूरा कर पाने में असमर्थ है, क्योंकि उन्हे उनके उपज का पर्याप्त लाभकारी दाम नहीं मिल पाता है। सरकार द्वारा फसलों की न्यूनतम समर्थन मूल्य तो घोषित की जाती है, लेकिन पूरे साल भर सभी फसलों की न्यूनतम समर्थन मूल्य में खरीदी हो सके इसकी व्यवस्था अब तक नहीं किया जा सका सका है। बल्कि यह भ्रम फैलाया जाता है कि किसानों के फसलों के दाम बढ़ने से उपभोक्ता वस्तुओं की महंगाई बढ़ेगी, जबकि सच्चाई यह है कि कॉरपोरेटों द्वारा बेची जानी वाली वस्तुओं की कीमतों में भारी बढ़ोतरी हुई है।आसमान छूती मंहगाई के लिए कॉरपोरेट घराने और उनकी लठैत फासिस्ट मोदी सरकार जिम्मेदार है। अनाज किसानों से सस्ती कीमत पर खरीदी जाती है और वही जब प्रोसेसिंग होकर वापस उपभोक्ताओं के पास आती है,जिसमें किसान भी शमिल है, उनके लिए कीमत बढ़ जाती है , उनका भाव कॉरपोरेट तय करते हैं।
इसलिए ऐतिहासिक किसान आंदोलन की दो मुख्य मांगें थीं, पहली मांग किसान, कृषि और आम उपभोक्ता विरोधी तथा कॉर्पाेरेट समर्थक कानूनों को निरस्त करने और दूसरी स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुसार सभी कृषि उपजों के न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी कानून बनाना और खरीदी सुनिश्चित करना। केन्द्र सरकार द्वारा एक तरफ तो आंदोलन के नेताओं के साथ चर्चा की प्रक्रिया अपनाने का ढोंग किया गया तो दूसरी ओर आंदोलन को कुचलने के लिए दमनात्मक हथकंडों के साथ साथ किसानों सहित देश की जनता को भ्रमित करने का प्रयास किया गया। जब आरएसएस-बीजेपी और मोदी सरकार ने मजदूरों पर खुला प्रहार करते हुए 44श्रम कानूनों को रद्द करके 04 श्रम कोड़ लेकर आयी जिसके लागू होने से मजदूरो की हालत बद से बदतर हो गई है, उसके बाद कृषि को कॉरपोरेट घरानों को देने के लिए तीन कृषि कानून लेकर आये जिसके खिलाफ किसानों ने ऐतिहासिक लड़ाई लड़ी सरकार की सारी साजिशें बुरी तरह विफल रही। तब सरकार को तीन कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा करनी पड़ी।लेकिन कॉरपोरेट घरानों की दलाल मोदी सरकार ने जो किसानो से वादे किये थे ,वह आज भी अधूरे हैं।
छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकार किसानों को धान की कीमत 2500 रुपये प्रति क्विंटल देने की बात करती है लेकिन यह दावा भी आधा अधूरा है क्योंकि प्रति एकड़ 14 कविंटल 80 किलो धान न्यूनतम समर्थन मूल्य में खरीदी होती है तथा अंतर की राशि किसान न्याय योजना के नाम पर चार किस्तों में राशि काटकर देती है। बाकी 10 कविंटल प्रति एकड़ धान को किसान ,1400 से 1500 रुपये प्रति कविंटल की दर से बेचने को मजबूर है।
भाजपा कार्यकाल के दो साल का बोनस देने का कांग्रेस ने किसानों से जो वायदा किया था उस पर चुप्पी साधे हुए है। मक्का खरीदी के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य तय है लेकिन खरीदी एकदम नही के बराबर है। सरकार कहती है किसान न्याय योजना के माध्यम से 9000 रुपये प्रति एकड़ किसानों को दिया जा रहा है परंतु वह केवल धान उत्पादक किसानों को चार किस्तों में दी जा रही है बाकी किसान इससे वंचित हैं। किसानों को कर्जमाफी का झुनझुना नहीं चाहिए किसानों को पूर्ण कर्ज मुक्ति चाहिए और यह तभी संभव होगा जब किसानों को पूरे साल उनकी सभी फसलों या उत्पादों का न्यूनतम समर्थन मूल्य मिले।
जून 2020 में केन्द्र की भाजपा सरकार ने किसान, कृषि और आम उपभोक्ता विरोधी कानून कॉरपोरेट घरानों के हित में लाया था जिसके खिलाफ देश के किसानों ने दिल्ली सीमाओं पर एक साल से ज्यादा आन्दोलन चलाया 750 किसानों की कुर्बानी के बाद मोदी सरकार को वह कानून वापस लेना पड़ा लेकिन किसान आन्दोलन की मांगें आज भी बाकी है। कृषि कानूनों के तर्ज पर ही वन संरक्षण के नाम पर आदिवासियों को उनके मूल रहवास से बेदखल करने व जल, जंगल जमीन को कॉरपोरेट घरानों को सौंपने के लिए केंद्र सरकार वन संरक्षण अधिनियम (संशोधन) 2023 विधेयक लाया गया है।जिससे व्यापक रुप पर्यावरण व पारिस्थितिक तंत्र का विनाश होगा, और साथ ही आदिवासी अपने मूल बसाहट से बेदखल कर दिये जाएंगे। कॉरपोरेट घरानों की दलाल फ़ासिस्ट भाजपा की मोदी सरकार का नव फासीवादी आक्रमण मेहनतकशों पर तेजी से बढ़ गया है। वन संरक्षण संशोधन अधिनियम 2023 का पूरा विपक्ष ने जमकर विरोध किया,तमाम आदिवासी संगठनों ने आपत्ति दर्ज की थी, देश के करोड़ों लोगों ने इस कानून का विरोध किया था, इसके बावजूद भी राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपती मुर्मू जी में इस आदिवासी विरोधी,पर्यावरण विरोधी कानून पर हस्ताक्षर कर दिया है।इस कानून के लागू होने से पांचवी अनुसूची क्षेत्र में पेसा कानून 1996 तथा वन अधिकार कानून 2006 निष्प्रभावी हो जाएंगे। आदिवासियों के हाथों में जो पुश्तैनी जमीन है उसे भी छीन लेने के लिए रास्ता खुल जाएगा ,इस कानून के जरिए कॉर्पोरेट घरानों को सीधा लाभ पहुचाने भाजपा सरकार ने सभी नियमो कायदों को तक में रखकर इस आदिवासी विरोधी पर्यावरण विरोधी बिल को संसद में बिना चर्चा या शोरगुल के बीच मात्र 40 मिनट में पास कर दिया। जबकि मोदी सरकार के द्वारा बनाया गया एस सी ,एस टी कमिशन ने भी इस बिल का विरोध किया था ,और कहा था कि इस मसविदा को कानून का रूप मिल जाने से आदिवासियों के मौलिक अधिकारों का हनन होने वाला है, उनके आपत्ति को भी सरकार ने दरकिनार कर दिया। इस बिल के लागू होने से उत्तर पूर्व के मेघालय, मिजोरम, मणिपुर, नागालैंड और त्रिपुरा के वनाच्छादित राज्यों में बड़े पैमाने पर वनों को नुकसान होने वाला है।
वन विभाग के मदद से आने वाले दिनों में आदिवासियों को जंगलों से खदेड़ना आसान हो जाएगा और इन आदिवासियों का जमीन पर कब्जा करके कॉरपोरेट को देने का मार्ग प्रशस्त हो जाएगा। जंगलों में रहने वाले आदिवासियों की जिंदगी तबाह होने वाली है, व्यक्तिगत वन अधिकार,एवं सामुहिक वन अधिकार की मान्यता खत्म हो जाएगा ।पांचवी अनुसूची क्षेत्र में लागू होने वाले पेसा कानून 1996 तथा वन अधिकार मान्यता कानून 2006 का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा, कॉरपोरेट का पूरे वन संपदा पर कब्जा हो जाएगा और पर्यावरण को तबाह करने के लिए पूरी छूट मिल जायेगी।
साथियों हम सरकार की जन विरोधी, किसान विरोधी, पर्यावरण विरोधी, आदिवासी विरोधी नीतियों के खिलाफ एकजूट होकर देशव्यापी संघर्ष को मजबूत करने की जरूरत है।
संयुक्त किसान मोर्चा ने कहा है कि छत्तीसगढ़ में कृषि संकट इतना भयावह है कि प्रति लाख किसान परिवारों के बीच हर साल औसतन 40-45 आत्महत्याएं हो रही है। यहां हर किसान परिवार औसतन 97000 रुपये के कर्ज में डूबा हुआ है। हसदेव के जंगलों को बचाने और आदिवासियों का विस्थापन रोकने के लिए पिछले एक दशक से लड़ाई जारी है। इसी तरह कोयला खनन के कारण हुए भू-विस्थापित रोजगार, पुनर्वास और बुनियादी मानवीय सुविधाओं के लिए एक बड़ी लड़ाई लड़ रहे हैं। विकास परियोजनाओं के लिए ग्राम सभा की “सहमति” को “परामर्श” में बदलकर राज्य सरकार ने पेसा कानून को ही निष्प्रभावी कर दिया है। वनाधिकार कानून का क्रियान्वयन तो नहीं हो रहा है, उल्टे बांटे गए वनाधिकार पत्रक छीने जा रहे हैं और गोठान के नाम पर गरीबों को उनकी जमीन से बेदखल किया जा रहा है। प्राकृतिक संसाधनों को कॉर्पोरेटों के हवाले करने का जो आदिवासी विरोध कर रहे है, वे राज्य प्रायोजित दमन का शिकार हो रहे हैं। सम्मेलन को में इन सब मुद्दों पर विचार-विमर्श होगा और संयुक्त संघर्ष के कार्यक्रम बनाये जाएंगे।


