
बिलासपुर।श्री पीताम्बरा पीठ सुभाष चौक सरकंडा बिलासपुर छत्तीसगढ़ स्थित त्रिदेव मंदिर में गुप्त नवरात्र के पांचवें दिन एवं पीताम्बरा यज्ञ के छठवें दिन माँ श्री ब्रह्मशक्ति बगलामुखी देवी की उपासना भुवनेश्वरी देवी के रूप में की जाएगी।पीठाधीश्वर आचार्य दिनेश जी महाराज ने बताया कि भुवनेश्वरी देवी का स्वरूप सौम्य है और इनकी अंगकान्ति अरुण है। भक्तों को अभय और समस्त सिद्धियाँ प्रदान करना इनका स्वाभाविक गुण है। वास्तव में मूल प्रकृति का ही दूसरा नाम भुवनेश्वरी है। दशमहाविद्याएँ ही दस सोपान हैं। काली तत्व से निर्गत होकर कमला तत्व तक की दस स्थितियाँ हैं, जिनसे अव्यक्त भुवनेश्वरी व्यक्त होकर ब्रह्माण्ड का रूप धारण कर सकती हैं तथा प्रलय में कमला से अर्थात् व्यक्त जगत से क्रमशः लय होकर कालीरूप में मूलप्रकृति बन जाती हैं। इसीलिये भगवती भुवनेश्वरी को काल की जन्मदात्री भी कहा जाता है।ईश्वररात्रि में जब ईश्वर के जगद्रूप व्यवहार का लोप हो जाता है, उस समय केवल ब्रह्म अपनी अव्यक्त प्रकृति के साथ शेष रहता है, तब उस ईश्वररात्रि की अधिष्ठात्री देवी भुवनेश्वरी कहलाती हैं। इनके मुख्य आयुध अंकुश और पाश हैं। अंकुश नियंत्रण का प्रतीक है और पाश राग अथवा आसक्ति का प्रतीक है। इस प्रकार सर्वस्वरूपा मूल प्रकृति ही भुवनेश्वरी हैं, जो विश्व को वमन करने के कारण वामा, शिवमयी होने से ज्येष्ठा और कर्म – नियंत्रण, फलदान करने व जीवों को दण्डित करने के कारण रौद्री कही जाती हैं। भगवान् शिव का वाम भाग ही भुवनेश्वरी कहलाता है।भुवनेश्वरी के संग से ही भुवनेश्वर सदाशिव को सर्वेश होने की योग्यता प्राप्त होती है महानिर्वाणतन्त्र के अनुसार समस्त महाविद्याएँ भगवती भुवनेश्वरी की सेवा में सदा संलग्न रहती सात करोड़ महामन्त्र इनकी सदा ही आराधना किया करते हैं। बृहन्नीलतन्त्र व पुराणों के अनुसार प्रकारान्तर से काली और भुवनेश्वरी दोनों में अभेद है अर्थात् कोई अन्तर नहीं है। अव्यक्त प्रकृति भुवनेश्वरी ही रक्तवर्णा काली है।देवीभागवत के अनुसार दुर्गम नामक दैत्य के अत्याचार से संतप्त होकर देवताओं और ब्राह्मणों ने हिमालय पर सर्वकारणस्वरूपा भगवती भुवनेश्वरी की ही आराधना की थी। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर भगवती भुवनेश्वरी तत्काल प्रकट हुईं। वे भुवनेश्वरी महाविद्या अपने हाथों में बाण, कमल-पुष्प तथा शाक-मूल लिये हुए थीं। तब भुवनेश्वरी माँ ने अपने नेत्रों से अश्रुजल की सहस्रों धाराएँ प्रकट कीं। इस जल से भूमण्डल के सभी प्राणी तृप्त हो गये । समुद्रों तथा सरिताओं में अगाध जल भर गया और समस्त औषधियाँ सिंच गयीं। अपने हाथ में लिये गये शाकों और फल-मूल से प्राणियों का पोषण करने के कारण भगवती भुवनेश्वरी ही ‘शताक्षी’ तथा ‘शाकम्भरी नाम से विख्यात हुईं। इन्होंने ही दुर्गमासुर को युद्ध में मारकर उसके द्वारा अपहृत वेदों को देवताओं को पुनः सौंपा था। उसके बाद इन भगवती भुवनेश्वरी का एक नाम दुर्गा प्रसिद्ध हुआ ।

