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वन विभाग

छत्तीसगढ़ वन विभाग में पाँच वर्षों का भ्रष्टाचार: बड़ी मछलियाँ अब भी बची हुई हैं?

Jp agrawal
Last updated: 2025/05/10 at 12:33 PM
Jp agrawal Published 10/05/2025
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Five years of corruption in Chhattisgarh forest department: Are the big fishes still left?

रायपुर | पिछले पाँच वर्षों में छत्तीसगढ़ वन विभाग में भ्रष्टाचार के जो मामले उजागर हुए हैं, वे केवल एक-दो जिलों तक सीमित नहीं रहे, बल्कि पूरे प्रदेश में फैले एक बड़े नेटवर्क की ओर इशारा करते हैं। टेंडर घोटाले से लेकर तेंदूपत्ता वितरण, पौधरोपण बजट से लेकर अवैध कटाई व ट्रांसपोर्ट तक—इन तमाम मामलों में लाखों-करोड़ों की रकम की अनियमितता सामने आई है।

हालांकि, आश्चर्य की बात यह है कि इन मामलों में कार्रवाई मुख्यतः निचले स्तर के कर्मचारियों तक सीमित रही है। बड़े अधिकारी—जिनके निर्देशन व स्वीकृति के बिना कोई वित्तीय लेन-देन संभव ही नहीं—अभी भी अपने पदों पर जमे हुए हैं।

प्रमुख भ्रष्टाचार मामले –

तेंदूपत्ता बोनस घोटाला (सुकमा, 2021–22)

पूर्व डीएफओ अशोक कुमार पटेल पर तेंदूपत्ता बोनस में ₹7 करोड़ का गबन। एफआईआर दर्ज, लेकिन उच्च स्तर पर कोई कार्रवाई नहीं। यह घोटाला बिना बड़े अधिकारियों की मौन स्वीकृति के संभव नहीं।

    मरवाही फर्जी समिति कांड

    वन समिति के नाम पर लाखों की निकासी। दो रेंजर और एक डिप्टी रेंजर सस्पेंड—बड़े अधिकारी क्यों नहीं ? समिति गठन, बजट स्वीकृति और भुगतान जैसे निर्णय उच्च स्तर पर होते हैं।

      मनरेगा में 4.76 करोड़ का गबन (मरवाही)

      मनरेगा से वन कार्यों की आड़ में करोड़ों की हेराफेरी। 16 अधिकारी-कर्मचारी सस्पेंड—पर क्या DFO की जवाबदेही नहीं बनती ? राशि के निर्गम और अनुमोदन में वरिष्ठ अधिकारियों की भूमिका रही है, लेकिन वे कार्रवाई से बाहर हैं।

        टेंडर घोटाला (2022)

        33 में से 37 टेंडरों में गड़बड़ी को विधानसभा में पूर्व वन मंत्री ने भी स्वीकारा। विभाग ने 9 अधिकारियों को कारण बताओ नोटिस जारी, लेकिन दोषियों की पहचान अब तक धुंधली। क्या यह ‘कार्यवाही का दिखावा’ मात्र नहीं ? सरकारी टेंडरिंग प्रक्रिया में DFO से लेकर वन मुख्यालय और मंत्रालय स्तर तक अनुमोदन होता है।

          कोरिया व सरगुजा में बेश कीमती इमारती लकड़ी की अवैध तस्करी : स्थानीय लोगों का आरोप—वन अमला खुद संलिप्त।

            ग्रामीण क्षेत्रों से लगातार यह आरोप लगते आए हैं कि जप्त लड़कियां विभागीय संरक्षण में अवैध रूप से बेची जा रही है। कार्रवाई के नाम पर सिर्फ निचले स्तर पर निलंबन जबकि उच्च पदस्थ अधिकारी अभी कुर्सियों पर काबिज है। तस्करी का यह तंत्र बिना संरक्षण के पनप नहीं सकता।

            क्यों बचते हैं बड़े अधिकारी?

            हर मामले में, कार्रवाई का फोकस केवल फील्ड स्टाफ या मिड-लेवल अधिकारियों तक सीमित रहता है। जो अधिकारी योजनाओं को पास करते हैं, फंड जारी करते हैं, और उच्च स्तरीय अनुश्रवण की ज़िम्मेदारी निभाते हैं, वे हमेशा ‘जांच के बाहर’ क्यों रहते हैं?

            क्या यह विभागीय संरचना में ऐसी खामियों को दर्शाता है जो जानबूझकर बनाई गई हैं? या फिर प्रशासनिक इच्छाशक्ति की कमी है?

            क्या अब होगी निष्पक्ष कार्रवाई?

            कौन है इस पूरे तंत्र का संरक्षक?

            नाम भले ही खुलकर सामने नहीं आते, लेकिन सूत्र बताते हैं कि रायपुर मुख्यालय से जुड़े कई वरिष्ठ अधिकारी लगातार संरक्षण देते रहे हैं। यही वजह है कि कार्रवाई का दायरा नीचे तक ही सीमित है और योजनाबद्ध रूप से जांच रिपोर्ट को धीमा कर दिया जाता है।

            क्या शासन उठाएगा निर्णायक कदम?

            वर्तमान में शासन ने कुछ मामले जांच एजेंसियों को सौंपे हैं, परंतु अभी तक किसी बड़े आईएफएस या मंत्रालय स्तर के अधिकारी के खिलाफ कोई कठोर कदम नहीं उठाया गया है।

            सवाल यह है:

            क्या कार्रवाई केवल छोटे कर्मचारियों तक ही सीमित रहेगी?

            क्या वरिष्ठ अधिकारियों की जवाबदेही तय की जाएगी?

            क्या “साहब संस्कृति” पर अंकुश लगेगा?

            छत्तीसगढ़ वन विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार एक संरचित प्रणाली का हिस्सा प्रतीत होता है, जहां नीचे के कर्मचारी कार्य को अंजाम देते हैं और ऊपर के अधिकारी मौन सहमति देते हैं। यदि शासन सच में जवाबदेही सुनिश्चित करना चाहता है, तो कार्रवाई “नीचे से ऊपर” तक होनी चाहिए—न कि सिर्फ “नीचे तक”।

            Jp agrawal

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            TAGGED: Raipur..
            Jp agrawal 10/05/2025 10/05/2025
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