भाषाई साम्राज्यवाद और हिंदी
आजादी के 75 वर्षों के बाद भी क्या हमें भाषाई स्वतंत्रता हासिल है? नहीं !हम भाषाई साम्राज्यवाद के शिकार हैं। सामाजिक आर्थिक एवं भौगोलिक मोर्चे पर हिंदी भाषी दूसरे दर्जे के नागरिक के समान होने को विवश है।
क्या अंग्रेजों द्वारा थोपी गई वह व्यवस्था लगातार और बलवती नहीं होती गई है,जिसमें स्थानीय भाषाओं की उपेक्षा करते हुए अंग्रेजीदां एक अल्पसंख्यक वर्ग तैयार किया गया है जो अपने भाषाई वर्चस्व द्वारा शेष समाज का शोषण करते हुए जाने-अनजाने अपने हित साधन में लगा हुआ है। जरा सोचिए यह क्यों हुआ
साम्राज्यवादियों के शासन से जो हीन भावना की ग्रंथि उपजी वह और और बढ़ती जा रही है। अपनी भाषा के प्रति आपका आत्मविश्वास खत्म किया गया जो अब तक नहीं बन पा रहा है।अपनी इसी हीनता ग्रंथि के कारण हम अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग करने लगते हैं।
जब व्यक्ति की श्रेणी उसके ज्ञान से नहीं अंग्रेजी या हिंदी बोलने की आधार पर तय की जाती हो भाषा के आधार पर व्यक्ति को कमतर,गंवार,जाहिल बताने की कोशिश हो तो यह एक तरह का मानसिक शोषण है।
इन्हीं कारणों से लोग हिंदी बोलने से कतराने लगते हैं या अपने को उन मानसिक रोगियों की श्रेणी में लाने के लिए जबरदस्ती अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग करने लगते हैं।
यहां मेरा तात्पर्य अंग्रेजी या किसी भी विदेशी भाषा के उन शब्दों से कतई नहीं है जो हिंदी में रच बस गई है जैसे स्कूल टेबल ग्लास मोबाइल डॉक्टर फीस प्लीज मम्मी पापा आदि परंतु जब हम जानबूझकर सैकड़ों अंग्रेजी शब्द बोलने लगते हैं जिससे प्रचलित हिंदी के शब्द आगे की पीढ़ियों में जाने के बजाय विलुप्त हो जाती हैं उदाहरण के लिए हम रंगों,रिश्तो, विषयों,दिन-महीनों,फल-सब्जियों, मोबाइल नंबर,घर दफ्तर के पते,अंग्रेजी में बोलने लगे हैं। जरा याद करें पोस्टमैन,मैकेनिक इलेक्ट्रिशियन,कारपेंटर,प्लम्बर, मेड,लेबर, ब्रदर सिस्टर,अंकल के लिए हमने कब डाकिया,मिस्त्री, बिजली मिस्त्री, बढई, दर्जी,रसोईया,कामवाली बाई, मजदूर,भाई, बहन, चाचा जी जैसे शब्दों का प्रयोग किया था।
एक और उदाहरण लें- एक्चुअली मैं आजकल बहुत बिजी हूं। मेरा बॉस मुझे कोपरेट नहीं करता,उसका बिहेवियर बहुत डिस्गस्टिंग है।
इसे ऐसे भी कहा जा सकता है
दरअसल मैं आजकल बहुत व्यस्त हूं। मेरा मालिक मुझसे सामंजस्य नहीं रखता, उसका व्यवहार अप्रत्याशित है।
हिंदी व्याकरण में अंग्रेजी के शब्दों का अधिकाधिक प्रयोग से हिंदी एक चलताऊ भाषा तो बन जाती है लेकिन अपने मानक स्वरूप से दूर होती जाती है।
पहले कहा जाता था कि इंग्लिश नहीं हिंदी बोलिए वो जुमला अंग्रेजी नहीं हिंदी बोलिए हो गया है। मैं यह ऐसा इसलिए कह रहा हूं कि प्रश्न हिंदी को बोलने या अपनाने का नहीं है बल्कि इसके शुद्ध व्याकरण, वैज्ञानिक वर्णों,शब्दों के स्थान पर अतार्किक रूप से अंग्रेजी को स्थापित करने की कोशिश से हैं।
प्रश्न है जब हम बोलते समझते हिंदी में है तो क्यों व्यवस्था हमारी नई पीढ़ी की शिक्षा,संस्कृति, शक्ति प्रतिष्ठा,परिजन,सत्ता के हर स्थल से हिंदी को बेदखल करने की प्रक्रिया में दिखती है।
हिंदी प्रदेशों में यही स्थिति बदतर है जबकि दक्षिण में हिंदी की स्थिति नई पीढ़ी द्वारा सहज रूप से अपनाई जा रही है लेकिन सिर्फ बाजार संवाद मनोरंजन आदि उपयोगिता परख दिशाओं में।
लोकप्रियता वादी राजनीति, सत्ता प्राप्ति ,न्यूज़ डिबेट,खेलों की कॉमेंट्री आदि में हिंदी की उपयोगिता जरूर बड़ी है लेकिन देश के समूचे सत्ता तंत्र में (प्रशासन),देशवासियों के भाग्य निर्धारण कार्ययोजना, प्रतिभा विकास और राष्ट्र के नवाचार में कहीं नहीं है,जिसे अब तक होना चाहिए था। अभी स्थिति यह है कि सरकारी स्कूलों,कॉलेजों को भी अंग्रेजीदां करने की प्रक्रिया में तेजी आई है यह स्थिति भयावह है क्योंकि इससे बची कुची भाषाई संस्कृति की समाप्ति की ओर कदम बढ़ा दिया गया है। इस नकल की बयार में हम विश्वगुरु होने का जो सपना संजोए हैं उसके साकार होने में प्रश्नचिन्ह खड़ा होता है।कुल मिलाकर ज्ञान विज्ञान अनुसंधान से हिंदी बहिष्कृत है,उच्च प्रतियोगी परीक्षाओं,नौकरियों, शिक्षा संस्थानों से हिंदी बहिष्कृत है।
यहाँ बहिष्कृत का अर्थ बड़ा व्यापक है,ये बहिष्कार
केवल भाषा का बहिष्कार नहीं हिंदी भाषी जनसाधारण का बहिष्कार है जो प्रभुत्ववर्ग के हिस्से नहीं है।इन्हें बचपन से संस्कार और शिक्षा में हिंदी नहीं मिली है वह बहिष्कृत हैं।
जिस देश में सीना ठोंक कर हिंदी के राष्ट्र भाषा होने का दम्भ भरा जाता हो वहाँ देश भर के अंग्रेजी स्कूलों में हिंदी बोलने पर लगे प्रतिबंधों पर मौन स्वीकार्यता प्रदान की जाती है।इस पर अभिभावकों सरकारों को ही नहीं सभी को जागरूक होने की जरूरत है।
हिंदी के स्वाभिमान के लिए सरकारों और हमें कुछ करना है तो
सबसे पहले हमें यह समझना होगा की एक राष्ट्र एक भाषा का विचार नया है। कुछ एक सदी पहले जन्मा है। हमारी देवनागरी लिपि प्राचीन है परंतु हिंदी नई वैज्ञानिक भाषा है। हिंदी का शब्द भंडार संस्कृत,अवधी,ब्रज,उर्दू,अंग्रेजी आदि से विकसित हुआ है। हिंदी जिन स्रोतों से विकसित हुई वे स्रोत हजारों साल पुराने हैं भाषा नई है। यानी एक प्राचीनतम राष्ट्र की नवीनतम राष्ट्रभाषा। भारत की भाषा समस्या की सारी जड़ें यहीं है। यहीं से हिंदी अंधभक्ति एवं अंध हिंदी विरोध की राजनीति जन्मती है।
यह कोई पश्चिमी देश नहीं है इसका विशिष्ट इतिहास, सामाजिक, सांस्कृतिक विविधता इसे भारत बनाता है।आज़ादी के 75 वर्षों ने यह सिद्ध किया है कि इसे किसी यूनिफॉर्म राष्ट्रभाषा की आवश्यकता नहीं है। किसी क्षेत्र पर कोई भाषा थोपने का परिणाम हमने बांग्लादेश के ऊपर उर्दू को थोपने के रूप में देखा है।
हिंदी के लिए कुछ करना है तो उसे स्कूल,कॉलेज, उच्च शिक्षा,अनुसंधान,ज्ञान-विज्ञान की भाषा बनाने के दूरगामी लक्ष्य के साथ योजना अंतर्गत कार्य करना होगा।
हिंदी के लिए कुछ करना है तो हिंदी भाषी लोगों, दलितों, आदिवासियों, वंचितों,गरीबों के जीवन स्तर, रोजगार,शिक्षा, स्वास्थ्य का सशक्तिकरण करना होगा न कि व्याकरण,शब्द भंडार,अभिव्यक्ति का सशक्तिकरण। वह तो हिंदी के पास पहले से ही है। सरकारें इसे बड़ी चालाकी से प्रयुक्त करती हैं।
अंग्रेजों के आने के बाद उन्होंने भारतीय समाज में भाषाई विद्वेष पैदा कर खुद को स्थापित कर लिया। भाषाएं अपने अस्तित्व के लिए एक दूसरे के प्रतिपक्ष में खड़ी है नतीजतन अंग्रेजी का वर्चस्व स्थापित होता जा रहा है। अंग्रेजी को यह कहकर अपरिहार्य कहा जा रहा है कि यह ज्ञान-विज्ञान की, भविष्य की सार्वभौमिक भाषा है। जबकि कई देशों ने इसे गलत साबित किया है। चीन,रूस,फ्रांस,जापान जैसे देशों ने अपनी भाषा और संस्कृति के साथ-साथ चलते हुए वैश्विक पहचान बनाई है।
हिंदी के लिए कुछ करना है तो भारतीय भाषाओं के ज्ञान अर्जन का आपसी अनुवाद का चलन प्रारंभ करना होगा।
हिंदी के लिए कुछ करना है तो विश्व के ज्ञान विज्ञान, साहित्य की पुस्तकों का सत्य हिंदी अनुवाद एवं देश भर में पुस्तकालयों ई पुस्तकालयों अनुवादकों, हिंदी कवियों, साहित्यकारों, शिक्षाविदों को आर्थिक एवं प्रशासनिक शक्तियां प्रदान करना होगा।
भारत की 130 करोड़ की आबादी में 5% लोग पूर्णता अंग्रेजी बोलते हैं इसमें अंग्रेजीदां लोगों की कुछ फ़ीसदी और जोड़ दी जाए तब भी अंग्रेजी नहीं बोलने वालों की आबादी अधिक रहेगी। भले इन कुछ प्रतिशत में सर्वे कराकर यह आंकड़ा प्रस्तुत किया जाता है कि अंग्रेजी बोलने वाले हिंदी बोलने वालों से 34% अधिक कमाते हैं परंतु वर्तमान समय में बड़ी कंपनियां उन लोगों को प्राथमिकता दे रही हैं जो हिंदी के साथ एक क्षेत्रीय भाषा भी जानते हों।
भारत में राजनीतिज्ञ या नेता का हिंदी बोलना उतना ही जरूरी है जितना खीर बनाने के लिए दूध का होना। विश्व की तीसरी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा का दर्जा यहां के करोड़ों लोगों द्वारा हिंदी बोलने से मिला है। अटल बिहारी वाजपेई जैसे नेताओं ने अपने दमदार हिंदी भाषणों एवं संवादों से देश ही नहीं विदेश में अपनी अनूठी छवि बनाई है क्योंकि हिंदी केवल भाषा नहीं बल्कि यह स्वाभिमान, गर्व एवं भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग है।
श्री कुमार पाण्डेय
बिलासपुर


