
बिलासपुर।संगीत संध्या में अम्मा की चिट्ठी के सस्वर प्रस्तुति ने श्रोताओं को भाव-विभोर कर दिया, बीस दिनों से बढ़ी ठंड है, सूरज नहीं दिखा है बेटा, मुसलादार गिरा है पानी, लगातार बदली छाई, बहुत दिनों के गांव से अम्मा की चिट्ठी आई है/ इसी तरह एक के बाद एक सुमधुर गीतों की प्रस्तुति ने श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया।
समन्वय साहित्य परिवार बिलासपुर इकाई द्वारा सांगीतिक प्रस्तुति कार्यक्रम का आयोजन शुक्रवार शाम शहर के एक निजी होटल में किया गया। यहां प्रसिद्ध भाषाविद एवं संगीतज्ञ प्रो डॉ.चितरंजन कर ने नगर के ख्यातिलब्ध साहित्यकार, गीतकवि डॉ. अजय पाठक के चुने हुए गीतों की सांगीतिक प्रस्तुति से समा बांध लिया। कार्यक्रम की शुरुआत अतिथियों द्वारा दीप प्रज्ज्वलन के साथ हुआ। इस आयोजन में कुशल मंच संचालन महेश श्रीवास एवं आभार प्रदर्शन नितेश पाटकर ने किया।
कार्यक्रम में स्वागत उद्बोधन देते हुए बिलासपुर इकाई के अध्यक्ष डॉ. गंगाधर पटेल ने कहा कि अजय पाठक जी के गीतों से भाव सहज ही अभिव्यक्त होते हैं, उनके गीतों को पढ़ना-सुनना हर बार एक नए अनुभव की जागृति है।
डॉ. अजय पाठक ने अपने सम्बोधन में कहा कि मेरे अंदर भी एक जिज्ञासा है, यही जिज्ञासा मेरे भीतर से गीत बनकर आप सभी के बीच आती है। मुझे उत्सुकता है कि देश के जाने माने गीतकार चितरंजन कर जी ने मेरे गीतों को किस तरह स्वरबद्ध किया है, मुझे खुशी होगी जब मेरे गीत इनके स्वर और संगीत का सहारा लेकर आप तक पहुंचेंगे।
सांगीतिक प्रस्तुति से पहले डॉ. चितरंजन कर ने कहा कि अजय पाठक जी के गीतों में एक सहज ही भावोक्षरण है। गीत में लोक समाहित होने के बाद वह नवगीत हो गया। अजय जी के गीत आपको उस भावलोक में ले जाते हैं, जहां सब कुछ सत्य है, शिव है, सुंदर है। उन्होंने कहा कि मैं संगीत का एक अनूठा छात्र हूं, मैं दत्तात्रेय की परंपरा का हूं, मुझे संगति अच्छी मिली है। मैं पिछले 65 साल से संगीत से जुड़ा हुआ हूं।
गीत संध्या की सांगीतिक प्रस्तुति के दौरान गीत कवि अजय के गीत कारे मेघ बदरिया
आंगन घिर घिर आये रे/ मैं थोड़ा फ़ागुन हो जाऊं, तुम थोड़ा सावन हो जाओ/ लय में आए,लय में जाए, मधुबन की पुरवैया रे /भूख पीठ पर चाबुक मारे, तृष्ना कसे लगाम, उमरिया कैसे बीते राम/ टूटकर बिखरे हुए घर बार हैं अब, अब कहाँ हैं बस्तियां बाजार हैं अब/ सब व्यर्थ चले जाएंगे मोती आंखों के, कुछ रखा नहीं है रोने और कल्पने में, चुप चाप रहा कर अपने में/ बांस के झुरमुट घनेरे, सांझ उतरी जा रही थी, और टहनी पर अकेले, एक चिड़िया गा रही थी/ अलख जगाए रात, सजनवा फागुन में/ साखी सबद रमैनी पोथी अपने कांधे ढोते, आज कबीर कहीं जो होते/ राज अपने खोलती है,
राम सचमुच बोलती है जैसे गीतों ने समा बांध लिया।

